कठोपनिषद्

(तेरहवां मन्त्र)

एतच्छ्रुत्वा सम्परिगृह्य मर्त्यः प्रवृह्य धर्म्यमणुमेतमाप्य।
स मोदते मोदनीयं हि लब्ध्वा विवृतं सद्म नचिकेतसं मन्ये॥ १३॥

मनुष्य इस इस धर्ममय (उपदेश) को सुनकर और भली प्रकार से ग्रहण करके (तथा) बारम्बार अभ्यास करके, इस सूक्ष्म आत्मतत्त्व को जानकर उस आनन्दस्वरूप परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर निश्चय ही आनन्दमग्न हो जाता है। (तुम) नचिकेता के लिए मैं परमधाम का द्वार खुला हुआ मानता हूँ।



कठोपनिषद्

प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली

(बारहवां मन्त्र)

तं दुर्दर्शं गूढमनुप्रविष्टं गुहाहितं गव्हरेष्ठं पुराणम्।
अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्षशोकौ जहाति॥ १२॥

उस कठिनता से प्राप्त करने योग्य, सूक्ष्म, अन्तःकरण और आत्मा में व्यापक, हृद्याकाश में स्थित, दुष्प्राप्य, नित्य (सनातन) देव (परमात्मा) को अध्यात्म (आत्मा सम्बन्धी) योग के अभ्यास से जानकर, विद्वान् पुरुष हर्ष और शोक (सुख-दुःख) दोनों को छोड़ देता है

कठोपनिषद्

प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली

(ग्यारहवां मन्त्र)

कामस्याप्तिं जगतः प्रतिष्ठां क्रतोरनन्त्यमभयस्य पारम्।
स्योममहदुरुगायं प्रतिष्ठां दृष्टवा धृत्या धीरो नचिकेतोत्यस्त्राक्षीः॥ ११॥

(हे नचिकेता ! तुमने भोग सम्बन्धी कामनाओं की प्राप्ति को, जगत की प्रतिष्ठा को, यज्ञादि के फल को, लौकिक निर्भीक्ता की पराकाष्ठा को, स्तुति योग्य महिमा और प्रतिष्ठा को, वेदों में जिसका गुणगान है ऐसे स्वर्ग को, (असार) देखकर स्थिरता के साथ (धैर्य पूर्वक विचार करके) छोड़ दिया है (इसलिए तुम) धीर (ज्ञानी) हो।)

कठोपनिषद्

प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली
(दसवां मन्त्र)
10th Mantra of second Valli (Kathopanishada)
जानाम्यहं शेवधिरित्यनित्यं न ह्यध्रुवैः प्राप्यते हि ध्रुवं तत्।
ततो मया नाचिकेतश्चितोमन्गिरनित्यैर्द्रव्यैः प्राप्तवानस्मि नित्यम्॥ १०॥

(मैं जानता हूँ कि धन, ऐश्वर्य अनित्य है। निश्चय ही अस्थिर साधनों से वह अचल तत्त्व (आत्मा) प्राप्त नहीं किया जा सकता। अतएव मेरे द्वारा नाचिकेत अग्नि का चयन किया गया और मैं अनित्य पदार्थों के द्वारा नित्य (ब्रह्म) को प्राप्त हो गया हूँ।)
Nachiketa agreed: “I know that earthly treasures are temporary because the eternal can never be attained by things which are non-eternal.  There for the Nachiketa fire (sacrifice) has been performed by me with transient things, I have obtained the eternal.”

कठोपनिषद्

प्रथम अध्याय द्वितीय बल्ली
(नौवाँ मन्त्र)

9th Mantra of Second Valli (Kathopanishada)
नैषा तर्केण मतिरापनेया प्रोक्तान्येनैव सुज्ञानाय प्रेष्ठ।
यां त्वमापः सत्यधृतिर्बतासि त्वादृक् नो भूयान्नचिकेतः प्रष्टा॥ ९॥

(हे परमप्रिय नचिकेता ! यह बुद्धि, जिसे तुमने प्राप्त किया है, तर्क से प्राप्त नहीं होती। अन्य (विद्वान्) के द्वारा कहे जाने पर भली प्रकार समझ में आ सकती है। वास्तव में, नचिकेता, तुम सत्यनिष्ठ हो। तुम्हारे सदृश प्रश्न पूछनेवाले हमें मिलें।)

This awakening you have known comes not through argument but It is truly known only when taught by another enlightened scholar (Who realized the supreme being). O beloved Nachiketa! You are indeed a man of real determination because you seek the Self eternal. May we have more seekers like you!