कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
द्वितीय वल्ली
(चौदहवाँ मन्त्र)


तदेतदिति मन्यन्तेऽनिर्दश्यं परमं सुखम्।
कथंतु तद्विजानीयां किम् भाति विभाति वा।।१४।।

(नचिकेता ने मन में सोचा) वह अनिर्वचनीय सुख (यह) है ऐसा (ज्ञानीजन) मानते है। उसे भली प्रकार कैसे जानूँ ? क्या (तत्व स्वतः) प्रकाशित होता है अथवा क्या होता अनुभूत है?)

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