कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
द्वितीय वल्ली
(चतुर्थ मन्त्र)


अस्य विस्त्रंसमानस्य शरीरस्थस्य देहिन:।
देहाद्विमुच्यमानस्य किमत्र परिशिष्यते।। एतद् वै तत्।। ४।।

(इस शरीर में स्थित, शरीर से चले जानेवाले जीवात्मा के शरीर से निकल जाने पर यहाँ (इस शरीर में) क्या शेष रहता है ? यह ही वह (ब्रह्म)  है।)

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